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श्रद्धा भाव से ही आत्म व परमात्म के दर्शन- यतिश्री अमृत सुन्दरजी
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बीकानेर, 29 जुलाई। रांगड़ी चौक के बड़ा उपासरा में शनिवार को यतिश्री अमृत सुन्दरजी ने कहा भक्तामर स्तोत्र दूसरी व तीसरी गाथा का वर्णन करते हुए कहा कि अहंकार रहित दिव्य विनय और श्रद्धा भाव से ही भक्त को आत्म व परमात्म के दर्शन होते है। समता, विनय, ज्ञान व सत्य साधना से कषाय दूर होते है, तथा परमात्म भक्ति के भाव दृढ़ होते है।
उन्होंने बताया कि मानतुंगाचार्य ने प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की भक्तामर स्तोत्र में स्तुति वंदना पूर्ण समर्पण व विनय भाव से की। भक्तामर स्तोत्र जैन धर्म की परम्परा मेंं सबसे लोकप्रिय संस्कृत प्रार्थना है। आचार्य मानतुंगजी ने 7वीं शताब्दी में राजा भोज के समय यह भक्तामर स्तोत्र की रचना की। राजा भोज ने मानतुंगाचार्य को 48 तालों में बंद कर दिया। जब उन्होंने भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों की रचना की एक के बाद एक सभी ताले टूट गए। यह भक्तामर के मंत्र शक्ति व भक्ति का दिव्य स्तोत्र है। इससे सुख,शांति, समृद्धि की प्राप्ति होती है। स्तोत्र में भक्ति भाव की सर्वोच्चता साधक को परमात्मा की अनुभूति करवा देती है।
यतिश्री अमृत सुन्दरजी ने कहा कि मानतुंगचार्य ने अपने आपको बुद्धिहीन, भक्ति में नादान अबोध बालक तथा परमात्मा को तीनों लोकों के सर्वोच्चज्ञाता, सर्वकल्याणकारी बताते हुए प्रार्थना की। यति सुमति सुन्दर व यतिनि समकित प्रभा ने भी श्रद्धा, भक्ति व सत्य साधना के महत्व को बताया।
यति सुमति सुन्दरजी ने ’’मुठी बांधे जन्म लिया, हाथ पसारे जाना, इस धरा पर सब धरा रह जाना है’’ ’’जग सुधरे तो मैं सुधरु यह भावना मन में लाओ, मैं सुधरू तो जग सुधरे यह दृढ़ भावना लावों’’ तथा ’’रक्त मांस की पैटी, चाम में लपेटी, कोई बन गया बेटी-कोई बन गया बेटी’’सुनाते हुए कहा कि हमें अपने जीवन में पाप कर्मों से बचकर जीवन में शुद्धि लाना, भावों को शुद्ध करना है । उन्होंने भक्तामर की 15 वीं गाथा का वर्णन करते हुए कहा कि वास्तविक सुख संसार के भोग विलास में नही हमारी सोच और आत्म-परमात्म तत्व के रमण में है। उन्होंने 18 पापों से 4 पाप मैथून,अब्रहमचर्य का त्याग करने, बचने की सलाह दी ।
यतिनि समकित प्रभा ’ अरिहंतों को नम्स्कार, सिद्धों नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों नमस्कार, जग के सभी साधु-यतिगणों को नमस्कार’’ स्तुति करते हुए कहा कि संसार व सांसारिक वस्तुओ, भोग पदार्थों की आसक्ति आत्मा के ऊपर कालिमा की कालिख की परत चढ़ा देती है। यह आसक्ति, लालसा, कामना भव-भव के कष्टों में जीव को डाल कर नरक में भेज देती है। मनुष्य को सावधानी रखकर जीवन को उत्थान में लगाना है, पतन में नहीं।

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